शापित अनिका: भाग २

देहरादून एअरपोर्ट पर अच्छी-खासी भीड़ थी, फिर भी पूरा माहौल शांतिपूर्ण लग रहा था। शायद यही उन दो वर्गों का भेद है,जिन्हें उच्च-वर्ग सभ्यता और असभ्यता कहकर परिभाषित करता है। आमतौर पर बस-अड्ड़े या रेलवे-स्टेशन पर और एअरपोर्ट के बाहर भी गरीब मध्यमवर्गीय लोगों की भीड़ रहती है, जिन्हें अपनी रोजी-रोटी से भी फुर्सत नहीं रहती। शायद  ये उन्हीं की अतृप्त कामनाओं का नाद है, जिसे संसार शोर कहता है। इसके विपरीत एअरपोर्ट के अंदर धनाड़्य वर्ग का प्रभुत्व है। उनके खजाने में इतना जमा है कि उनका जीवन बिना मेहनत भी सरलता से चल सकता है इसलिये उनका अंतर्मन लगभग शांत है। यदा-कदा उठने वाला करलव कदाचित उनके लालच का परिचायक है।

देहरादून एअरपोर्ट पर इन्हीं तथाकथित सभ्य धनाड़्य लोगों के बीच आशुतोष आकर्षण का केंद्र है। पीली टी-शर्ट और लाल नेकर पहने करीब छः फुट का सांवला सा नौजवान, जिसकी दाढ़ी-मूंछ बेतरतीब बढ़ी हुई है, इन मॉर्डन विलायती हंसों के बीच कौआ कौआ दिख रहा है। एअरपोर्ट पर सबकी नजर उसकी ओर थी, लेकिन इन सबसे से अप्रभावित वो अपना सूटकेस खींचते हुये सीधे एअरपोर्ट से बाहर निकल गया।

एअरपोर्ट से निकलते ही उसने एक नजर यात्रियों को लेने आये लोगों पर ड़ाली और फिर निराशापूर्ण हंसी हंसते हुये सिर को हल्का सा झटका दे दिया और सड़क पर जाकर एक ऑटो रूकवाया।

"कहां जाना है शाब जी?" ऑटो वाले ने पूछा।

"श्यामसिंह बिष्ट के घर ले चलो।" कहते हुये आशुतोष ने सूटकेस उठाकर ऑटो की पिछली सीट पर रख दिया।

"अरे! देहरादून में तो हजारों श्यामसिंह बिष्ट है शाब जी! " ऑटोवाला हंसते हुये बोला- "मेरा खुद का नाम यही है तो क्या अपने घर ले चलूं? कुछ पता-ठिकाना भी है या नहीं?"

"बिष्ट-मैंशन ले चलो। वो...."

"समझ गया शाब जी! आपको बिष्ट-मैंशन बोलना था न शाब। यहां किसी को भी बिष्ट शाब का पूरा नाम क्या ही पता होगा?" ऑटोवाला बात काटकर बोला- "देखिये वहां तो ऑटो बुकिंग में ही जायेगा... वो अपना रूट नहीं है। पूरे पांच सौ रूपये लगेंगें।"

"मैं हजार दूंगा, बस ऑटो में सिगरेट पीने से मत रोकना और बात मत करना।" कहकर आशुतोष ने दो पांच सौ के नोट ड्राइवर के हवाले किये और सूटकेस के बगल में बैठ सिगरेट सुलगा ली। ऑटोवाले ने भी ऑटो स्टार्ट कर बिष्ट मैंशन की ओर मोड़ दी। करीब आधे घंटे बाद ऑटो बिष्ट मैंशन के आगे रूका। आशुतोष को उतरते देख गेट पर खड़ा बूढ़ा चौकीदार दौड़कर सूटकेस उतारने लगा।

"रहने दो सोबन काका! अब तुम्हारी उमर हो चली है और सूटकेस भारी है। मर-मरा गये तो मुझे ब्रह्महत्या लगेगी।" आशुतोष ने सूटकेस लेते हुये कहा और मुख्य-द्वार की तरफ बढ़ गया।

"अरे आशु बाबा... बचपन से आपको गोदी में खिलायें हैं। अब मौत भी आपहीं का काम करते हुये आवे, तो ये हमारी खुशकिस्मती होगी।" बूढ़ा हंसकर बोला।

"बस-बस काका... अब और इमोशनल मत करो।मेरा आशीर्वाद है आप अभी सात साल और जियोगे।" कहते हुये आशुतोष ने घर की बेल बजाई।

"का भैया! जिनगी तो ऊपरवाले के हाथ में है। चाहे तो सात नहीं साठ साल जिऊं या फिर चाहे तो कल ही बुला ले।"

"और घर पर सब ठीक है?"

"हां.. ठीक ही है।" बूढ़े ने जवाब दिया लेकिन उसकी आंखों में एक बेबसी की लकीर आशुतोष ने देख ली थी।

"नहीं भी है तो हो जायेगा। भगवान पर भरोसा रखो।"

"अब तो भगवान का ही आसरा है भैया!" बूढ़े मे फीकी हंसी दी और गेट की राह ली।

आशुतोष कुछ सोचते हुये कुछ देर बूढ़े को जाता देखता रहा और फिर दरवाजे को। जब तब भी दरवाजा नहीं खुला तो उसने दोबारा लगातार तीन- चार बार बेल बजा दी।

"अरे कौन मर गया है? आ रही हूं..." अंदर से किसी लड़की की आवाज आई। जैसे ही दरवाजा खुला तो सामने करीब अठ्ठारह-उन्नीस साल की लड़की खड़ी थी।

"आशु भैया!" लड़की चीखते हुये आशुतोष के गले से लग गई- "आज चार साल बाद शक्ल दिखा रहे हो। मेरी याद नहीं आई?"

"मिशा की बच्ची! ज्यादा नाटक मत कर।" आशुतोष ने हंसते हुये कहा- "इतना ही प्यार था तो मुझे लेने एअरपोर्ट क्यों नहीं आई?"

"लेकिन मुझे तो पता ही नहीं था कि आप आज आ रहे हो!" मिशा चौंककर बोली।

"चल कोई बात नहीं! यार मैं बहुत थक गया हूं इसलिये फ्रेश हो आता हूं। तू मेरा सामान कमरे में पहुंचाकर एक कप कॉफी ले आ।" कहकर आशुतोष अंदर चला गया। मिशा खुन्नस भरी नजरों से उसे जाते देखती रही, मानों कह रही हो कु ये कैसे मैनर्स हैं कि छोटी बहन को कुली बना दो।

* * *

जब तक आशुतोष किचन से बाहर निकला, तब तक मिशा कॉफी और स्नैक्स लेकर उसके कमरे में आ चुकी थी। जैसे ही मिशा की नजर आशुतोष पर पड़ी तो वो मुस्कुराकर रह गई। आशुतोष ने शेविंग कर ली थी और अब वो किसी भी एंगल से सड़क- छाप नहीं लग रहा था। आशुतोष बिस्तर पर बैठ गया और मिशा से कॉफी का एक कप ले लिया।

"अब ठीक लग रहे हो। नहीं तो लग रहा था कि कोई अघोरी घर में आ घुसा है।" मिशा ने कहा तो आशुतोष बस मुस्कुरा दिया।

"अच्छा इन चार सालों में घर क्यों नहीं आये? हमारी याद नहीं आती थी? दिल्ली से देहरादून इतनी भी तो दूर नहीं है।" मिशा ने पूछा।

"नहीं आती थी।" आशुतोष ने एक गहरी सांस लेकर कॉफी का एक घूंट भरा- "सच कहूं तो बहुत याद आती थी लेकिन मैं याद करना नहीं चाहता था।अगर याद आती थी तो अपने डॉक्टरी के इंतजामात थे। एक बोतल कफ-सिरप गटका और सीधे अगले दिन होश आती था।"

"वाऊ.. तो अब मेरा भाई ड्रग-एड़िक्ट भी है।" मिशा ने उत्साह कम गुस्सा ज्यादा दिखाया- "लेकिन हमारा क्या कुसूर है? मम्मी-पापा की गलतियों की सजा हमें क्यों दे रहे हो?"

आशुतोष ने देखा तो मिशा की आंखों में आंसू थे। हंसते हुये बोला- "अरे कौन सी सजा यार! मैं वहां डॉक्टरी की पढ़ाई के लिये गया था और पता है इतना टाइट शेड्यूल था कि सांस लेने की भी फुर्सत नहीं थी फिर याद करने के लिये समय कहां था? और तुझे तो पता है न कि मैं पढ़ाई के लिये कितना सीरियस हूं। तभी तो पांचवीं के बाद नवोदय स्कूल चला गया था।"

"आप कुछ भी बोलो लेकिन मुझे पता है कि तुम उस कैकेयी की वजह से ही घर छोड़कर गये थे। मैं उसे कभी माफ नहीं करने वाली।"

"इसमें मम्मी-पापा का कोई कसूर नहीं है मिशा, उन्हें दोष देना ठीक नहीं होगा। वैसे मम्मी-पापा है कहां?" आशुतोष बात बदलते हुये बोला।

"सिड़ के स्कूल से कम्पलेंट आई थी और न्यू क्लासेज रिलेटेड़ कोई काम था सो वहीं गये हैं और तुम बात बदलने की कोशिश मत करो।" मिशा चिढ़ भरी आवाज में बोली।

"अरे! मैं कहां बात बदल रहा हूं? बस मैं नहीं चाहता कि तुम इन सब के लिये मां या पापा को जिम्मेदार ठहराओ।" आशुतोष समझाते हुये बोला।

"लेकिन..."

"चल मैं कुछ देर घूमकर आता हूं। पन्द्रह साल के ऊपर हो गये, देहरादून ढंग से घूमा भी नहीं।" कहकर आशुतोष बाहर निकल आया और गैराज में लेटे ड्राइवर से चाभी लेकर देहरादून की सड़कों पर निकल पड़ा। असल में वो उस बहस से भाग रहा था, जिसे मिशा ने शुरू किया था क्योंकि न तो उसके पास उसके सवालों के जवाब थे और न ही वो चाहता था कि मिशा मां-बाप की खिलाफत करे।

* * *

आशुतोष की स्कॉर्पियो देहरादून की सड़कों पर भागी जा रही थी। असल में भले ही वो गाड़ी की स्टेयरिंग पर था,लेकिन उसका दिमाग अतीत की गहराइयों में गोते लगा रहा था। उसकी आंखे पानी में डबडबाई सुर्ख हो चुकी थी।

सत्रह साल पहले उसकी जिंदगी भी खुशहाल थी। उसके पिता श्याम सिंह बिष्ट उत्तराखंड की नामचीन हस्तियों में शामिल थे। लगभग पूरे देश में उनका व्यापार फैला था।उनके पारिवारिक होटेल बिजनेस को उसके पिता ने काफी बढ़ाया। इसके अलावा आई. आई. टी. रूड़की से इंजीनियरिंग की डिग्री लेकर उन्होनें एक कंस्ट्रकशन कम्पनी भी शुरू की थी जो कम समय में ही प्रगति कर चुकी थी लेकिन अचानक सब-कुछ बदल गया।

सत्रह साल पहले जब उसकी मां का देहांत हुआ,तब वो सिर्फ पांच साल का था।कुछ महीने तो जैसे-तैसे पिता ने पाला लेकिन समय के अभाव के कारण वो उसे ज्यादा वक्त नहीं दे पाते थे। आखिर कुछ रिश्तेदारों और करीबियों के समझाने पर उन्होनें विमला देवी से दूसरी शादी कर ली। भले ही उनकी शादी का मकसद कुछ भी रहा हो लेकिन आशुतोष को उसकी मां नहीं मिल पाई।

जब बारात के साथ दुल्हन आई थी तो आशुतोष "अम्मां"कहकर उसकी गोदी में बैठ गया, लेकिन उस अठ्ठारह साल की नव-विवाहिता को ये शब्द किसी गाली की तरह लगा। जग-दिखावन की खातिर उसने कुछ कहा तो नहीं लेकिन उसके स्पर्श मे आशुतोष को कभी वो ममत्व का एहसास हुआ ही नहीं और ये मुखौटा भी चार दिन में ही उतर गया। तब से वो नई अम्मा के पास जाने से कतराता था।
आशुतोष को वो दिन याद आया जब मिशा पैदा हुई थी तो कितने प्रेम से वह उसे गोद में उठाना चाहता था लेकिन बदले में उसे नई अम्मां से तमाचा खाना पड़ा था। शाम को जब पिताजी आये तो उन्होनें ने भी बिना कारण उसकी धुनाई कर दी। उस दिन के बाद से वो स्कूल के बाद पूरा दिन अपने कमरे में बिताया करता था।

जब मिशा बड़ी होने लगी तो खुद ही उसके पास चली आती थी और वो भी सब भूलकर उसके साथ खेलने लगता लेकिन हमेशा खेल का अंत नई अम्मां या बाबूजी के हाथ आशुतोष की पिटाई से होता।इन सब बातों से आशुतोष का मन बहुत खिन्न हो चुका था इसलिये पांचवी पास कर जब उसका चयन जवाहर नवोदय विद्यालय में हुआ तो वह सहर्ष जाने को तैयार हो गया।

घर पर उसके जाने से भला किसको परेशानी थी? श्याम जी ने उसको सहर्ष नवोदय स्कूल पहुंचा दिया। आशुतोष को याद आया कि जिस दिन वो जा रहा था तो मिशा उसके साथ जाने के लिये कितना रोई थी। आशुतोष ने बारहवीं तक की पढ़ाई नवोदय से ही की। शीतकालीन और ग्रीष्मकालीन छुट्टियों में वो घर इस उम्मीद से जाता कि शायद अब कुछ बदलाव हुआ हो,लेकिन हालात जस के तस थे इसीलिये जब उसे डॉक्टरी में एड़मिशन मिला तो बिना डॉक्टरी पास किये वो घर लौटकर ही नहीं आया।

अभी आशुतोष इन्हीं बातों में खोया था कि उसने देखा गाड़ी के सामने से एक स्कूटी आ रही है,जिस कारण उसे जल्दबाजी में ब्रेक लगाने पड़े। स्कॉर्पियो तो रूक गई लेकिन स्कूटी वाली लड़की ने हड़बड़ाहट में स्कूटी उसकी गाड़ी से ठोक दी।

"ओह.. आई एम सो सॉरी…" आशुतोष जल्दी से गाड़ी के बाहर आया और लड़की को सहारा देकर खड़ा किया- 'वो मेरा ध्यान कहीं और था। आई एम रियली रियली सॉरी।'

"नो इट्स ओके। आई एम फाइन। एक्चुअली गलती तो मेरी थी। आपने तो ब्रेक लगा दिये थे,पर मैं हड़बड़ा गई और आपकी गाड़ी को ठोक दिया। आई एम सॉरी।" लड़की की आवाज ऐसी थी मानों कानों में शहद घोल रहा हो।

आशुतोष की नजर लड़की पर पड़ी तो मानो ठहर सी गई।गोरा रंग और सुंदर नैन-नक्शों वाली वो लड़की मानों गुलाबी सूट-सलवार में कयामत सी ढ़ा रही थी। आम की फांको जैसे होठों के ऊपर बांयी तरफ एक छोटा सा काला तिल ऐसा लग रहा था मानों कुदरत ने बुरी नजर से बचाने के लिये काला टीका लगाया हो। हवा से उड़ते हुये बाल जब उसके चेहरे पर आये तो ऐसा लगा मानों बादल चांद को अपने आगोश में लेने की कोशिश कर रहा हो। मगर आशुतोष को सबसे तीव्र आकर्षण उसकी कत्थई आंखों में लगा। न जाने ऐसा क्या था उन आंखों में कि आशुतोष पर मदहोशी सी छाने लगी। किसी तरह खुद को संभालते हुये बोला- "कोई बात नहीं, आपको चोट तो नहीं लगी?"

"नहीं.. मैं ठीक हूं।" लड़की स्कूटी उठाने की कोशिश करते हुये बोली।

"मैं उठाता हूं।" कहकर आशुतोष ने स्कूटी खड़ी की-
"आर यू श्योर कि आपको चोट नहीं लगी है।"

"या… आई एम फाइन। थैंक्यू.." लड़की मुस्कुराई और स्कूटी स्टार्ट कर वहां से चली गई। आशुतोष तब तक उसे जाते हुये देखता रहा, जब तक वो नजरों से ओझल नहीं हो गई और फिर मुस्कुराकर अपनी गाड़ी घर की तरफ मोड़ ली। जैसे ही उसने रेड़ियो ऑन किया उसे किशोर दा की आवाज सुनाई दी-

चेहरा है या चांद खिला है,
जुल्फ घनेरी शाम है क्या…
सागर जैसी आंखों वाली,
ये तो बता तेरा नाम है क्या...

"ओह शिट… नाम तो पूछा ही नहीं! कोई बात नहीं। बैटर लक नेक्सट टाइम…" आशुतोष ने हल्के से सिर झटकाया और फिर मुस्कुराते हुये किशोर दा की आवाज में खो गया।

* * *

क्रमश:

    ---अव्यक्त

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5 Comments

Pamela

02-Feb-2022 01:52 AM

Bahut achchi kahani likhi hai

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Amir

02-Nov-2021 08:13 PM

वेरी नाइस....

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BhaRti YaDav ✍️

29-Jul-2021 04:38 PM

Nice

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